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होली का हुड़दंग!

लीजिये ,फ़िर होली का त्योहार आ गया ...बच्चे बोले ..चलो हम बाज़ार हो आते है .पांच दिन बाद ही तो होली है अभी तो खाने-पीने का सामान ,रंग,पिचकारी कुछ भी नही लिया..मैने भी खीझ कर कह दिया..अभी तो पांच दिन बाकी है न !.सब हो जायेगा..दिमाग मत खाओ..कहने को तो मैने कह दिया .पर मै बच्चों के मन की बेचैनी को अच्छे से समझती थी .पांच दिन तो क्या ..हम तो पच्चीस दिन पहले से ही होली की तैयारी करने लगते थे ..अपने बचपन की होली और आज की होली मै बडा फ़र्क है .तब की होली ..और वो भी हमारे यहां की होली..हे भगवान !!! होली की लगभग सभी तैयारियां होली दहन के समय तक पूरी हो जाया करती थीं जो थोडी बहुत गुझियां बननी शेष रह जाती थी वो होली दहन की देर रात तक बनाई जाती थी .इसके दो फ़ायदे हुआ करते थे ,एक-चूंकी अगले दिन छुट्टी होती थी और होली मिलने वालों का भी आना -जाना शुरू हो जाता था.सो गुझियां बनाने का काम पूरा परीवार मिल बैठ कर निबटा लेता था , दो --रात भर घर की निगरानी भी हो जाती थी हंडियांऒ से..{अब आप सोचेगे की ये हंडियां क्या बला है तो सुनिये -हंडिया..एक मिट्टी का छोटा सा घडा होता था जिसमे तमाम तरह की गंदगी जैसे कीचड ,कचरा वगैरह भरकर उसे सुन्दर सा पैक कर दिया जाता था ,यह सारा काम शहर के स्कूल-कोलेज के लडकों द्वारा जमादारों की मदद से किया जाता था] इन पैक्ड हंडियाओ को होली दहन के बाद देर रात से सुबह चार -पांच बजे तक कुछ खास घरों के मुख्य दरवाजे पर जोर से पटक दिया जाता था.. .खास घर वे हुआ करते थे .जिनसे होली रखने वालो की टीम को मनचाहा चंदा न मिला हो ,जिस घर से छोटी-मोटी दुश्मनी हो ,.. जिस घर मै नापसंद टीचर हो..या फ़िर जिस घर में मनपसंद लडकियां हों .इन चार विशेषताओ वाले घर को ही हंडियां का निशाना बनाया जाता था .सारी -सारी रात लोग जाग कर अपने -अपने घर की निगरानी किया करते थे.निगरानी भी छुप कर की जाती थी .वह भी सिर्फ़ यह जानने के लिये की हंडिया फ़ेकने वाला कौन है ..बडा ऊधम मचता था उस रात ..जैसा न कहीं देखा ना सुना ... रात बारह बजे से सूरज उगने तक रह -रह के धडाम -भडाम की आवाजें हम सब सुनते रहते थे .. और यह अन्दाज़ा लगाते रहते थे कि,यह आवाज़ कितनी दूर से आई है ,किस ओर से आई है ..किसके घर को निशाना बनाया गया है .वगैरह वगैरह ..हम एक छोटे से कस्बे में रहा करते थे .लगभग सभी परिवार एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित हुआ करते थे ..सो किस घर को निशाना बनाया गया है ..जानने कि बेचैनी रहती थी । किसी तरह रात कट ही जाती थी ,सुबह से लोगों में काना फ़ूसीशुरू हो जाती थी ,जिनके घर सुबह तक साफ़ -सुथरे दिख रहे थे ..वे गर्व के साथ यहां वहां चहल कदमी ,दूसरों के घरों मे ताका -झांकी करने लगते थे ..और जिनके घर कीचड से सराबोर होते थे ..उनमे से कुछ लोग तो सूरज निकलने से पहले ही अपने घर को धो चुके होते थे [ यह अलग बात है कि धुले -पुंछे घर रात क्या हुआ अच्छे से जाहिर कर देते थे ]या देर सुबह तक अपने अपने घरों मे कैद रहते थे ..। होली दहन का अगला दिन हमारे लिये खास मायने नहीं रहता था ..वजह ,इस दिन सभ्य घरों के लोग रंग नही खेलते थे ।सभी शरारती लडके ,अधेड..दहन के दूसरे दिन काफ़ी हुडदंग करते थे होली रंगों से कम कीचड से ज्यादा खेलते थे.. आपस मे एक दूसरे को उठाना, नालियां,ढूंढ-ढूंढ कर उनमें पटकना आम बात थी .. हम लोग यह सब चोरी छुपे देखा करते थे ..दोज के दिन हम सब खूब होली खेला करते थे ..बहुत मस्ती किया करते थे .इस दिन कोई हुडदंग नही होता था..भले ही होली हम एक दिन खेलते थे ,लेकिन होली -मिलन [एक दूसरे के घर होली के पकवान खाना ]एक महिने तक चलता था .बडा मजा आता था ..। अब तो हमारे मायके मे भी इस तरह की होली नही खेली जाती..जिसका हमने जिक्र किया है ।हम शायद इस कीचड की हंडिया वाली होली के अंतिम पीढी के चश्मदीद गवाह है । हम अपने बचपन की होली के किस्से तो जब तब बच्चों को सुना -सुना कर बोर कर देते है .उन्हें रट गये है ,लेकिन अब जब बच्चे हमसे होली पर जरा सी भी शरारत करते है [वो भी परमीशन लेकर ]तो हम उन्हें उपदेश देने लगते है ।मैने तो तय कर लिया है ,इस होली पर रोकूंगी -टोकूंगी नहीं ,आप भी ऐसा ही करिये ,और खुद भी होली के मजे लीजिये ।हैप्पी होली

Mrs. Priyadarshini Tiwari

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